पीओके पर अपनी दावेदारी का सही बक्त है वरुण गांधी

देश के युवा नेता ने कहा पीओके पर अपनी दावेदारी का सही बक्त है वरूण गांधी पीलीभीत साल 1947 की शुरुआत तक बारामूला जम्मू-कश्मीर का सांस्कृतिक केंद्र था। एक तरफ रावलपिंडी और दूसरी तरफ श्रीनगर के बीच। व्यापारिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का फायदा उठाने के लिए यह बिल्कुल मौके की जगह पर था। साथ ही पूरब की तरफ जाने वाले माल का एक प्रमुख ट्रांजिट पॉइंट था। पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत के कबायली हमलावरों ने अक्तूबर 1947 में बारामूला शहर पर धावा बोल दिया। कबायली होने के बावजूद आश्चर्यजनक रूप से वे शेवरले कारों, राइफलों, बड़ी मात्रा में रसद और एक व्यापक सामरिक योजना के साथ आए थे। मेजर जनरल अकबर खान ने अपनी पुस्तक रेडर्स इन कश्मीर (1970) में इस बारे में विस्तार से बताया है। कि हमलावर बारामूला के मुख्य बाजारों में बेरोक-टोक घूमे और जो कुछ भी मिला, लूट लिया और कई लोगों की हत्याएं कीं। यह सब खत्म होने तक बारामूला अपने भीतरी इलाकों और रावलपिंडी के व्यापारिक रास्ते से कट चुका था और व्यापारिक प्रवेश द्वार के बजाय पिछले दरवाजे में बदल चुका था। एंड्रयू व्हाइटहेड अपनी किताब, अ मिशन कश्मीर में बताते हैं कि लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी अपनी वंशावली उन मुजाहिदीन से जोड़ते हैं, जिन्होंने बारामूला पर हमला किया था। भारतीय सैनिकों ने बहादुरी से श्रीनगर का बचाव किया और नवंबर 1947 तक अपना इलाका वापस छीनकर हमलावरों को उरी तक भागने को मजबूर कर दिया था। तब तक सर्दियों की बर्फ पड़ने लगी थी, जिससे पाकिस्तानी सेना को मुजफ्फराबाद और पीओके के दूसरे इलाकों में मोर्चाबंदी का मौका मिल गया। पाकिस्तान के सैन्य अफसरों ने इस अभियान से जो सबक सीखा, वह आसान था–अनियमित सैनिकों की दो-चार कंपनियों की अनुशासित सेना एक हफ्ते में ही बनिहाल दर्रे और श्रीनगर हवाई अड्डे पर कब्जा कर सकती थी, जिससे भारत के लिए विलय के बाद राज्य को मिलाने के सभी विकल्प बंद किए जा सकते थे। गिलगिट-बाल्टिस्तान के अधिगृहित प्रांत को स्थानीय इंचार्ज ब्रिटिश अधिकारी द्वारा पाकिस्तान को यों ही सौंप दिया गया था। पाकिस्तान के लिए औपचारिक युद्ध का होना जरूरी नहीं था। इसके बजाय वैचारिक रूप से प्रेरित भाड़े के सैनिक कम खर्च पर कहीं ज्यादा अच्छे नतीजे दे सकते थे। ऐसे में पाकिस्तान का भारत के खिलाफ हाईब्रिड और प्रॉक्सी युद्ध चलते रहना था।और स्वतंत्रता के बाद भारत-पाकिस्तान के संबंधों का यही रुझान तय हो गया। पाकिस्तान ने कश्मीर में 1965 में गैर-सरकारी तत्वों को पीछे से मदद देकर सशस्त्र विद्रोह की इसी रणनीति को दोहराया। उसके बाद 1988 और 2003 के बीच कश्मीर में असंतोष को हवा देकर वही उदाहरण पेश किया गया। और अंततः 1999 में कारगिल युद्ध हुआ। 1971 के युद्ध ने उपमहाद्वीप में पाकिस्तान के वर्चस्व के मिथ्याभिमान को खत्म कर दिया, और साफ कर दिया कि वह पारंपरिक लड़ाई में भारत को हरा नहीं सकता है। भारत के ऑपरेशन ब्रास्टैक्स (1986) युद्ध अभ्यास के बाद पाकिस्तानी सेना ने रक्षात्मक रुख अख्तियार किया, और संघर्ष के गैर-परंपरागत साधनों पर जोर दिया। वर्ष 1988 के बाद से इस्लामाबाद ने विभिन्न आतंकवादी समूहों के गठन और विकास के लिए समर्थन दिया। कश्मीर में आतंकवाद को प्रायोजित करना पाकिस्तान और भारत के बीच शक्ति असंतुलन को दूर करने का एक असरदार और सस्ता तरीका माना गया। पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई ने विदेशी आतंकवादियों को जिहाद में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित कर अफगान-आतंकवादी मॉडल को कश्मीर में लागू करना चाह पाकिस्तान अब भी कश्मीरी और विदेशी आतंकवादियों को अपनी मदद जारी रखे हुए है और गोला-बारूद, पैसा, सैद्धांतिक व प्रशिक्षण संबंधी मदद मुहैया कराता है। कश्मीर में विद्रोह को बढ़ावा देने के लिए आईएसआई का सालाना बजट लगातार बढ़ता जा रहा है। अनुमानों के मुताबिक, 2000 के दशक के शुरुआती वर्षों में यह 12.5-25 करोड़ डॉलर सालाना था। इसके लिए धन स्वाभाविक रूप से नकली नोट छापकर, मादक पदार्थों की बिक्री करके और विदेशी मदद से आता है। 'अमन की आशा' की तमाम बातों के बावजूद, सरकार से इतर सत्ता प्रतिष्ठानों की ऐसी मौजूदगी दीर्घकालीन क्षेत्रीय शांति की राह में बाधा है। ऐसी हरकतों का नतीजा अफसोसनाक रहा है। पाकिस्तान ने अपने संस्थापक आदर्शों को छिन्न-भिन्न कर दिया है।अमरजीत सिंह ने एक लेख में लिखा है, पाकिस्तान अब गैर-परंपरागत युद्ध और रणनीतिक परमाणु हथियारों का डर दिखाते हुए भारत के साथ सिर्फ बराबरी बनाए रखने के लिए पारंपरिक और गैर-पारंपरिक तरीके से संघर्ष जारी रखना चाहता है। लोगों को उम्मीद की थी कि इमरान खान के सत्ता में आने के बाद नई शुरुआत से सरकार का रवैया बदलेगा और यह सामाजिक लोकतंत्र की दिशा में आगे बढ़ेगा। मगर अफसोस ऐसा नहीं हुआ। नई नागरिक सरकार जल्द ही खाली कारतूस साबित हुई, जो सैन्य मुख्यालय के हुक्म से चलती है। इस बीच, भारत पर आतंकवादी हमले जारी हैं, जिनके मुख्य निशाने पर सैन्य ठिकाने (जैसे पुलवामा) हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब दिया है। भारत ने सीमा पार के आतंकी ठिकानों को तबाह करने के लिए पहल करते हुए हमले किए। इसके अलावा, सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए को खत्म कर कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे को हटाने का साहसिक कदम उठाया है।पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसकी शिकायत लेकर पहुंचा, जबकि भारत कश्मीर को भारतीय संघ में एकीकृत करने और इसे विकास के लाभ देने के काम के साथ आगे बढ़ा। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान का अलग-थलग होना स्पष्ट है। हाल ही में एफएटीएफ की ग्रे सूची में पाकिस्तान का बने रहना इसके नेतृत्व की सामूहिक विफलता है। प्रधानमंत्री मोदी के मजबूत नेतृत्व में भारत को कश्मीर मसले के समाधान के लिए अपनी अंतर्निहित शक्तियों का सहारा लेकर आक्रामक और रक्षात्मक उपायों के साथ द्विपक्षीय वार्ता पर जोर देना चाहिए, जिससे पीओके का भारत में एकीकरण हो सके। अभी भारत प्रभावशाली स्थिति में है। ऐसे में, पाकिस्तान से सिर्फ महत्वपूर्ण बकाया मसलों को हल करने के लिए बातचीत की पेशकश करनी चाहिए। हमें अब पाकिस्तान को भावनात्मक दृष्टिकोण से देखना छोड़ अपनी उत्तरी सीमा को सुरक्षित करने की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है।